हमारे पूज्य गुरुदेव के सौजन्य से🙏

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जीना महत्वपूर्ण नहीं है ना ही जीवन महत्वपूर्ण है. महत्वपूर्ण है की किस भाव में हम जीवन जी रहे हैं यदि देह भाव में जीवन जी रहे हैं तो निश्चित रूप से स्त्री भाव अथवा पुरुष भाव अथवा अन्य भाव से जीवन जी रहे हैं तब…. इसे प्रभावित करने वाले कारको के अनुसार हममें विचलन और परिवर्तन होता है. यदि कोई स्त्री हैं तो निश्चित ही वह स्त्री भाव में (स्त्री देह भाव) में जी रही है तब वे सभी कारक जो स्त्री देह और स्त्री मन को प्रभावित करते हैं उसे भी प्रभावित करते रहेंगे. जब कोई देह भाव में जीवन जीता है तो देह को प्रभावित करने वाले कारक जैसे मन, बुद्धि, चित्त, अंहकार, भूख, प्यास, लोभ, मोह, काम, क्रोध, जाति, सम्प्रदाय, आधि,व्याधि, उपाधि, धन, जन्म, मरण, जरा, व्याधि इत्यादि उसे प्रभावित करते रहते हैं उसमें विभिन्न प्रकार के विचलिन उतपन्न करते रहेंगे.

वहीं देह भाव छूट जाए और यदि आत्म भाव में जीना सीख जाए तो….. फिर रहे आत्मा तो स्त्री- पुरुष भाव से मुक्त है वह तो जन्म, जरा, व्याधि और मृत्यु से भी परे है. ये चेतना का शुद्ध स्वरूप है जो सभी दुखों से परे है. गीता यही तो सीखाती है देह भाव से एक लंबी छलांग लगाओ और आत्म भाव में जीना सीखो. स्त्री- पुरुष के देह भाव से ऊपर उठकर स्वयं को चेतना का शुद्ध भाव आत्मा के रूप में पहचानो और जब हम इसे पहचान लेते हैं तो फिर नश्वरता के प्रति भय और भोगों के प्रति मोह स्वमेव समाप्त हो जाता है

यात्रा यहाँ समाप्त नहीं होती क्योंकि द्वैत यहाँ समाप्त नहीं होता अब चेतना के विस्तारीकरण की यात्रा प्रांरभ होता है. आत्मा के परमात्मा में परिवर्तित होने की प्रकिया प्रांरभ होती है.आत्म भाव से परमात्म भाव में जीने की शुरुआत होती है और आत्मा का विस्तारीकरण पूर्ण होता है तो फिर वही अद्वैत में जीने लगता. जहाँ समस्त भाव एकत्व में लीन हो जातें हैं साधक, साधना और साध्य एक हो जातें हैं

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