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गुरू कृपा ही केवलम् 🌷
“विवेक”
विवेक नाम का अर्थ बेहद ‘यूनिक’है।विवेक नाम का अर्थ “न्याय, विवेक, ज्ञान, भले-बुरे का ज्ञान, समझ,कारण,आदि होता है।जैसे:-विवेक से काम करना।
कारणनिरपेक्ष साधन की सिद्धि तत्काल होती है, जबकि कारणसापेक्ष साधन की सिद्धि समय पाकर होती है ।शरीर में नहीं हूँ-इसके अनुभव मे बाधा यह है कि आप इसे बुद्धि से पकडना और अनुभव करना चाहते हैं।स्वयं से होनेवाले अनुभव का आदर करें।स्वीकृति अस्वीकृति स्वयं की होती है ।मै हूँ, इसमें जो बात “हूँ”के साथ लग जाती है ,उसकी विस्मृति नहीं होती।जैसे-मै ब्राह्मण हूँ, मै धनवान हूँ आदि।अपने विवेक का अनादर करने के समान कोई पाप नहीं है।जो अपने विवेक का आदर नहीं करता, वह शास्त्र, गुरू, संत की वाणी का भी आदर नहीं कर सकता।शरीर जानेवाला है-इस विवेक का अनादर ही जन्म-मरण देनेवाला है।विवेक विरोधी संबंध का त्याग करें तो अभी मुक्ति है ।अंतःकरण शुद्ध नहीं है, अच्छे महात्मा नहीं मिले, हमारे कर्म ऐसे नहीं हैं, भगवान ने कृपा नहीं की-यह सब बहानेबाजी है।खास बीमारी यह है कि हम संयोगजन्य सुख लेना चाहते हैं।यदि आप अपने विवेक का आदर न करें तो वर्षों तक समाधि लगाने से भी कल्याण नहीं होगा ।मैं शरीर नहीं हूँ-यह स्वीकृति है, अभ्यास नहीं।यह विवेक आप सभी को है, पर आप इसका आदर नहीं करते।
हमारे पूज्य गुरुदेव के सौजन्य से।🙏

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हमारे पूज्य गुरुदेव के सौजन्य से🙏

गुरू कृपा ही केवलम्🌷
“मित्र”
मित्र वह है जो आपको आपकी गलतियों और कमजोरियों का बार बार स्मरण कराती है ,ऐसा व्यक्ति किंचित आपका शत्रु नहीं हो सकता।अपितु, वह आपका शत्रु जरूर है जो आपके गलत दिशा में बढते हुए कदम को देखकर भी मुस्कुराता रहे और आपको रोकने का प्रयास न करे ।
विरोध करने वाला शत्रु नहीं, बल्कि गलत कार्यों का विरोध ना करनेवाला ही परम् शत्रु होता है ।आज अपने और पराये की परिभाषा थोडी बदल सी गई है ।लोग सोचते हैं कि स्वजन-प्रियजन वही है ,जो हर स्थिति में आपका साथ दे ,लेकिन वास्तव में प्रियजन वही है जो अप्रिय कर्म अथवा कुकर्म से सदैव आपको बचाने का प्रयास करते रहे।
दुर्योधन ने चाचा विदुर की बात मान ली होती तो महाभारत ना होता ।रावण ने विभिषण की बात मानी होती तो लंका विध्वंस ना होता ।
वास्तव में सच्चा मित्र वही है जो हमारी मति सुधार दे ।जीवन को श्रेष्ठ गति देते हुए गोविंद के चरणों में रति प्रदान कर दे।
हमारे पूज्य गुरुदेव के सौजन्य से।🙏

हमारे पूज्य गुरुदेव के सौजन्य से🙏

राम चरित्र मानस

एक दिन संध्या के समय सरयू के तट पर तीनों भाइयों संग टहलते श्रीराम से महात्मा भरत ने कहा, “एक बात पूछूं भईया?

माता कैकई ने आपको वनवास दिलाने के लिए मंथरा के साथ मिल कर जो षड्यंत्र किया था, क्या वह राजद्रोह नहीं था?

उनके षड्यंत्र के कारण एक ओर राज्य के भावी महाराज और महारानी को चौदह वर्ष का वनवास झेलना पड़ा तो दूसरी ओर पिता महाराज की दुखद मृत्यु हुई। ऐसे षड्यंत्र के लिए सामान्य नियमों के अनुसार तो मृत्युदंड दिया जाता है, फिर आपने माता कैकई को दण्ड क्यों नहीं दिया?

राम मुस्कुराए…बोले, “जानते हो भरत, किसी कुल में एक चरित्रवान और धर्मपरायण पुत्र जन्म ले ले तो उसका जीवन उसके असँख्य पीढ़ी के पितरों के अपराधों का प्रायश्चित कर देता है। जिस माँ ने तुम जैसे महात्मा को जन्म दिया हो उसे दण्ड कैसे दिया जा सकता है भरत ?”

भरत संतुष्ट नहीं हुए। कहा, “यह तो मोह है भइया, और राजा का दण्डविधान मोह से मुक्त होता है। एक राजा की तरह उत्तर दीजिये कि आपने माता को दंड क्यों नहीं दिया, समझिए कि आपसे यह प्रश्न आपका अनुज नहीं, अयोध्या का एक सामान्य नागरिक कर रहा है।

राम गम्भीर हो गए। कुछ क्षण के मौन के बाद कहा, “अपने सगे-सम्बन्धियों के किसी अपराध पर कोई दण्ड न देना ही इस सृष्टि का कठोरतम दण्ड है भरत!”

माता कैकई ने अपनी एक भूल का बड़ा कठोर दण्ड भोगा है। वनवास के चौदह वर्षों में हम चारों भाई अपने अपने स्थान से परिस्थितियों से लड़ते रहे हैं, पर माता कैकई हर क्षण मरती रही हैं।

अपनी एक भूल के कारण उन्होंने अपना पति खोया, अपने चार बेटे खोए, अपना समस्त सुख खोया, फिर भी वे उस अपराधबोध से कभी मुक्त न हो सकीं। वनवास समाप्त हो गया तो परिवार के शेष सदस्य प्रसन्न और सुखी हो गए, पर वे कभी प्रसन्न न हो सकीं। कोई राजा किसी स्त्री को इससे कठोर दंड क्या दे सकता है?

मैं तो सदैव यह सोच कर दुखी हो जाता हूँ कि मेरे कारण अनायास ही मेरी माँ को इतना कठोर दण्ड भोगना पड़ा।”

राम के नेत्रों में जल उतर आया था, और भरत आदि भाई मौन हो गए थे।

राम ने फिर कहा, “और उनकी भूल को अपराध समझना ही क्यों भरत! यदि मेरा वनवास न हुआ होता तो संसार भरत और लक्ष्मण जैसे भाइयों के अतुल्य भ्रातृप्रेम को कैसे देख पाता। मैंने तो केवल अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन मात्र किया था, पर तुम दोनों ने तो मेरे स्नेह में चौदह वर्ष का वनवास भोगा। वनवास न होता तो यह संसार सीखता कैसे कि भाइयों का सम्बन्ध होता कैसा है।” भरत के प्रश्न मौन हो गए थे। वे अनायास ही बड़े भाई से लिपट गए!राम कोई नारा नहीं हैं।राम एक आचरण हैं, एक चरित्र हैं, एक जीवन जीने की शैली हैं। *स्नेह वंदन* *प्रणाम*

हमारे पूज्य गुरुदेव के सौजन्य से🌷

गुरू कृपा ही केवलम्🌷
“शांति”
शांति के आगे साम्राज्य का कोई मोल नहीं है।जिसके पास शांति है किन्तु, साम्राज्य नहीं है वह अमीर है ।मगर जिसके पास साम्राज्य तो है किन्तु, शांति नहीं है वह निश्चित ही गरीब ही है।यह इस जीवन की एक बडी विडंबना है कि कभी कभी यहाँ साम्राज्य मिल जाता है ,मगर शांति नहीं मिल पाती और कभी कभी इसके ठीक विपरीत साम्राज्य तो नहीं मिल पाता, हाँ शान्ति जरूर प्राप्त हो जाती है ।
बाहर से हारकर भी जिसने स्वयं को जीत लिया वह सम्राट है।मगर दुनिया जीतकर भी स्वयं से हार गया, सच समझना वो कभी भी सम्राट नहीं हो सकता ।सम्राट को शांति मिले यह आवश्यक नहीं पर जिसे शांति प्राप्त हो गई वह सम्राट अवश्य है।साम्राज्य जीवन की उपलब्धि नहीं, शांति जीवन की उपलब्धि है, चाहे वह धनवान बनने से मिले या धर्मवान बनने से ।वैसे शांति सामान्यतया केवल धर्म के आश्रय से ही मिलती है ।
हमारे पूज्य गुरुदेव के सौजन्य से🙏

गुरू कृपा ही केवलम्🌷”भाग्य”आप चाहें तो सारी वस्तुओं की तुलना किसी से कर सकते हैं, मगर भूल कर भी अपने भाग्य की कभी भी किसी से तुलना मत कीजिए ।कुछ लोगों द्वारा अपनी भाग्य की तुलना दूसरों से कर व्यर्थ तनाव मोल लेते हैं और भगवान को ही सुझाव देते हैं कि उसे ऐसा नहीं ऐसा करना चाहिए था।परमात्मा से कभी शिकायत मत कीजिए।हम इतने समझदार नहीं हुए हैं कि परमात्मा के इरादे समझ सकें ।यदि उस ईश्वर ने आपकी झोली खाली की है तो चिंता मत कीजिए, क्यूंकि शायद वे पहले से कुछ बेहतर उसमें डालना चाहते हो।यदि आपके पास समय हो तो उसे दूसरों के भाग्य को सराहने मे न लगाकर स्वयं के भाग्य सुधारने में लगाइए।परमात्मा भाग्य का चित्र बनाता है, मगर उसमें कर्म रूपी रंग तो खुद ही भरने पडते हैं।जिस प्रकार एक डाक्टर/वैद्य द्वारा दो अलग अलग रोग के रोगियों को अलग अलग दवा दी जाती है ,किसी को मीठी तो किसी को अत्यधिक कडवी ।लेकिन, दोनों के साथ भिन्न भिन्न व्यवहार किये जाने के बावजूद भी उसका उद्देश्य एक ही होता है, रोगी को स्वास्थ्य लाभ प्रदान करना ।ठीक इसी प्रकार उस ईश्वर द्वारा भी भले ही दिखने में भिन्न भिन्न लोगों के साथ भिन्न भिन्न व्यवहार नजर आये मगर उसका भी केवल एक उद्देश्य होता है और वह है, कैसे भी हो मगर उस जीव का कल्याण करना।ईश्वर ने सुदामा को अकिंचन ,बालि को सम्राट, शुकदेव जी को परम ज्ञानी, विदुर जी को प्रेमी, पांडवो को मित्र एवं कौरवों को शत्रु बनाकर तार दिया।स्मरण रहे कि भगवान केवल क्रिया से भेद करते हैं, भाव से नहीं।हमारे पूज्य गुरुदेव के सौजन्य से🙏

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” सकारात्मकता “ अगर आप दुख पर ध्यान देंगे तो हमेशा दुखी रहेंगे और सुख पर ध्यान देंगे तो हमेशा सुखी रहेंगे क्योंकि यह जीवन का शाश्वत नियम है कि आप जिस पर ध्यान देंगे वही चीज सक्रिय हो जाती है। यदि दो पेड़ों को एक साथ लगाया जाए मगर देख रेख एक ही पेड़ की की जाए, एक ही पेड़ का ध्यान रखा जाए और समय - समय पर खाद पानी भी उसी एक पेड़ को दिया जाए तो सीधी सी बात है कि जिस पेड़ पर ध्यान दिया जाएगा वही अच्छे से पुष्पित और फलित हो पायेगा। ठीक ऐसे ही सुख पर ध्यान केंद्रित करोगे तो जीवन में सुख की ही वृद्धि पाओगे और दुख पर ध्यान केंद्रित करोगे तो जीवन में दुख ही दुख प्राप्त होंगे। विज्ञान ने भी इस बात को सिद्ध किया है कि जीवन में जिस वस्तु की हम उपेक्षा करने लगते हैं वो वस्तु धीरे-धीरे अपने अस्तित्व को खोना शुरू कर देती हैं। भले ही वो प्रेम हो, करुणा हो,जीवन का उल्लास हो अथवा सुख ही क्यों न हो। जहाँ सकारात्मक दृष्टि जीवन में सुख की जननी होती है वहीं नकारात्मक दृष्टि जीवन को दुख और विषाद से भी भर देती है। इसलिए जीवन में सदा सकारात्मक दृष्टि ही रखी जानी चाहिए ताकि व्यक्ति के दुख और विषाद जैसे काल्पनिक शत्रुओं का समूल नाश हो सके।

🙏 जय सदगुरुदेव 🙏

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गुरू कृपा ही केवलम्🌷
“प्रकृति एक सीख”
जीवन तब जटिल बन जाता है जब हम सीखना बंद कर देतेहैं।यह संपूर्ण प्रकृति हमें एक सीख प्रदान करती है ताकि हम उससे कुछ सीख कर अपने जीवन को सरल ,खुशहाल व आनंदमय बना सके।
चींटी से मेहनत, बगुले से तरकीब और मकडी से कारीगरी ,ये हमें जीवन में सीखनी चाहिए ।नन्ही सी चींटी महीने भर मेहनत करती है और साल भर आराम और निश्चिंतता से अपना जीवन जीती है।बिना मेहनत के जीवन खुशहाल और निंश्चित नहीं बन सकता है ये उस नन्हीं सी चींटी की सीख है।
वैसे तो बगुले को उसके ढोंग के लिए ही जाना जाता है, मगर बगुले का वह ढोंग भी मनुष्य को एक बहुत बडी सीख दे जाता है कि रास्ते बदलो पर लक्ष्य नहीं बदलो ।कभी कभी बहुत मिहनत के बाद भी कार्य सिद्ध नहीं हो पाता है, मगर वही कार्य कम मिहनत मे भी सिद्ध हो सकता है, बस आपके पास उसकी तरकीब अथवा तरीका होना चाहिए।
मकडी हमें रचनात्मकता की सीख देती है ।अगर हम सदैव कुछ रचनात्मक करने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं तो एक दिन हम पायेंगे कि हमारी रचनात्मकता सृजन का रूप ले चुकी होती है और एक नया अविष्कार हमारे द्वारा संपन्न हो चुका होता है।कारीगरी मानव जीवन का अहम् पहलू है।मकडी की तरह अपने कार्य में निष्ठापूर्वक व्यस्त रहिए, मगर केवल जीवन के उलझनों मे कभी भी अस्त-व्यस्त नहीं रहना चाहिए।
हमारे पूज्य गुरुदेव के सौजन्य से🙏

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जीना महत्वपूर्ण नहीं है ना ही जीवन महत्वपूर्ण है. महत्वपूर्ण है की किस भाव में हम जीवन जी रहे हैं यदि देह भाव में जीवन जी रहे हैं तो निश्चित रूप से स्त्री भाव अथवा पुरुष भाव अथवा अन्य भाव से जीवन जी रहे हैं तब…. इसे प्रभावित करने वाले कारको के अनुसार हममें विचलन और परिवर्तन होता है. यदि कोई स्त्री हैं तो निश्चित ही वह स्त्री भाव में (स्त्री देह भाव) में जी रही है तब वे सभी कारक जो स्त्री देह और स्त्री मन को प्रभावित करते हैं उसे भी प्रभावित करते रहेंगे. जब कोई देह भाव में जीवन जीता है तो देह को प्रभावित करने वाले कारक जैसे मन, बुद्धि, चित्त, अंहकार, भूख, प्यास, लोभ, मोह, काम, क्रोध, जाति, सम्प्रदाय, आधि,व्याधि, उपाधि, धन, जन्म, मरण, जरा, व्याधि इत्यादि उसे प्रभावित करते रहते हैं उसमें विभिन्न प्रकार के विचलिन उतपन्न करते रहेंगे.

वहीं देह भाव छूट जाए और यदि आत्म भाव में जीना सीख जाए तो….. फिर रहे आत्मा तो स्त्री- पुरुष भाव से मुक्त है वह तो जन्म, जरा, व्याधि और मृत्यु से भी परे है. ये चेतना का शुद्ध स्वरूप है जो सभी दुखों से परे है. गीता यही तो सीखाती है देह भाव से एक लंबी छलांग लगाओ और आत्म भाव में जीना सीखो. स्त्री- पुरुष के देह भाव से ऊपर उठकर स्वयं को चेतना का शुद्ध भाव आत्मा के रूप में पहचानो और जब हम इसे पहचान लेते हैं तो फिर नश्वरता के प्रति भय और भोगों के प्रति मोह स्वमेव समाप्त हो जाता है

यात्रा यहाँ समाप्त नहीं होती क्योंकि द्वैत यहाँ समाप्त नहीं होता अब चेतना के विस्तारीकरण की यात्रा प्रांरभ होता है. आत्मा के परमात्मा में परिवर्तित होने की प्रकिया प्रांरभ होती है.आत्म भाव से परमात्म भाव में जीने की शुरुआत होती है और आत्मा का विस्तारीकरण पूर्ण होता है तो फिर वही अद्वैत में जीने लगता. जहाँ समस्त भाव एकत्व में लीन हो जातें हैं साधक, साधना और साध्य एक हो जातें हैं

गुरू कृपा ही केवलम्🌷
“प्रसन्नता”
प्रसन्नता जीवन का सौंदर्य है।चित्त की अप्रसन्नता मे चेहरे का सौंदर्य कोई मायने नहीं रखता है।जीवन तो वही सुंदर है, जिसमें चेहरे पर खूबसूरती हो या नहीं हो मगर हृदय में प्रसन्नता अवश्य होनी चाहिए ।महत्वपूर्ण ये नहीं कि आप कितने सुंदर हैं, महत्वपूर्ण ये है कि आप कितने प्रसन्न हैं।
प्रसन्नचित व्यक्ति सकारात्मक सोच का पर्याय है।व्यक्ति की सोच जितनी सकारात्मक होगी उसका मन उतना ही प्रसन्न भी रहेगा ।सकारात्मक विचारों से ही जीवन में सकारात्मक नजरिये का निर्माण संभव हो पाता है और सकारात्मक विचार सदैव श्रेष्ठ संगत से प्राप्त होते हैं।आपके अंतःकरण की प्रसन्नता निःसंदेह आपके संगत पर भी निर्भर करती है ।
जीवन में प्रायः यही पाया गया है कि जिनके पास श्रेष्ठ विचारों वाले व्यक्तियों का संगत रहा वो पांडवों की तरह विपरीत परिस्थितियों में भी प्रसन्नतापूर्वक जी सके ।जीवन में सदैव श्रेष्ठ का संगत करें ताकि उनसे प्राप्त प्रेरक विचार आपके जीवन परिवर्तन का कारण बन सके और सुविचारों की महक से पुष्प की तरह आपका जीवन भी प्रसन्न एवं सौंदर्यपूर्ण बन सके।
हमारे पूज्य गुरुदेव के सौजन्य से🙏